और बदन की स्वेद से, शुरू हो गई जंग।
पल-पल तपते सूर्य की, ऐसी बिछी बिसात।
हर बाज़ी वो जीतकर, हमें दे रहा मात।
लू लपटों ने कर लिया, दुपहर पर अधिकार।
दिन भर तनकर घूमता, दिनकर चौकीदार।
हरियाली गुम हो गई, प्रखर हो गई धूप।
पीत वर्ण अब हो चला, उद्यानों का रूप।
व्याकुल पंछी फिर रहे, सूखे कंठ उदास।
जाएँ कहाँ निरीह ये, बुझे किस तरह प्यास।
तरण ताल सूखे सभी, बालक हैं गमगीन।
वन जीवन प्यासा फिरे, जल बिन तड़पी मीन।
नमी हवा खोने लगी, मुरझाए तृण पात।
रातों की ठंडक घटी, गुमी शबनमी प्रात।
बात “कल्पना” मानिये, सेहत रखें बहाल।
सुबह-शाम टहला करें, दिन बीते खुशहाल।
-कल्पना रामानी
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