फिर से आओ कृष्ण जी, देखो कलियुग घोर।
नाम तुम्हारा ओढ़ते, भाँति-भाँति के चोर।
कंस बली हैं आज के, तुम्हें न देंगे ताज।
ताज पहन यदि आ गए, झपट पड़ेंगे बाज।
दधि-माखन से खेलते, वे दिन जाना भूल।
शीत-गृहों में रक्ष
है, अब नवनीत अमूल।
कुदरत से खिलवाड़ कर, मद में है मनु चूर।
तर होते पनघट नहीं, और न यमुना पूर।
उस युग में तुम बो
गए, रिश्तों में
सद्भाव।
अब है रिश्ता एक ही, अपनों से अलगाव।
आना तो होगा
तुम्हें,
हरने भव का रोग।
वृन्दावन में आज भी, राह देखते लोग।
गोकुल को तुमने
दिया,
अमर प्रेम का रंग।
राधा अब भी चाहती, श्याम सखा का संग।
पुनः जन्म लो कृष्ण
जी, लिए मुरलिया
हाथ।
झूला आकर झूलना, अपनी राधा साथ।
आज तुम्हारा जन्म
दिन,
मना रहा है देश।
कैसे भूलें ‘कल्पना’,
गीता के उपदेश।
-कल्पना रामानी
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