जल बरसाओ मेघ रे, मुनिया बड़ी उदास।
कागज़ किश्ती उड़ चली, पानी की है आस।
मेघा हम तो चाहते, ना सूखा ना बाढ़।
सावन बरसे झूमके, भीगा हो आषाढ़।
तरस गए जल बूँद को, मेघ बुझाओ प्यास।
चार मास के पाहुने, बँधी तुम्हीं से आस।
नदिया पोखर मौन हैं, खोई है पहचान।
लोग नहीं अब पूजते, किया नहीं जल दान।
वसुधा राह निहारती, बादल सुनो पुकार।
सूरज ने वेधा बदन, दे दो शीतल धार।
तर हों खेत किसान के, बोए श्रम के बीज।
खुशहाली के साथ हो, इस सावन की तीज।
-कल्पना रामानी
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