देवनागरी तब बनी, संस्कृति का आधार।
युग पुरुषों ने तो रचे, हिन्दी में बहु छंद।
पर नवयुग की पौध ने, किए कोश सब बंद।
वेद ऋचाओं का नहीं, हुआ उचित सम्मान।
हिन्द पुत्र भूले सभी, हिन्दी का रसपान।
जो हिन्दी के पक्षधर, किसे सुनाएँ पीर।
अपनों के ही हाथ से, टूटा है प्राचीर।
हिन्दी का कर थामकर, ‘कल’ ने जीती जंग।
मगर ‘आज’ पर छा गया, गुलामियों का रंग।
पहन विदेशी बेड़ियाँ, नौनिहाल खुश आज।
भाव विदेशी चूमते, खोकर अपना ताज।
आओ मिलकर हम करें, ऐसे ठोस प्रयास।
बीते युग की दासता, पुनः न आए पास।
त्यागें मन से आज ही, अंग्रेज़ी का दंभ।
अडिग रहे हर हाल में, अब हिन्दी का स्तम्भ।
अंग्रेज़ी के नामपट, मेटें कालिख पोत।
द्वार द्वार जगमग जले, हिन्दी की ही ज्योत।
हिन्दी की हों लोरियाँ, हिन्दी के ही गीत।
भागी हो वो दंड का, जो ना माने रीत।
हट जाए बाजार से आयातित साहित्य,
कोने कोने में दिखे, हिन्दी का अधिपत्य।
प्रथम फर्ज़ है बंधुओं, हिन्दी का उत्थान।
क्यों भूली इस बात को, भारत की संतान।
हिन्दी के सम्मान में, लिखें अनगिने गीत।
जागे ज्यों जन चेतना, वरण करें वो रीत।
मना रहे हिन्दी दिवस, अब तक हम हर साल।
कट जाए इस साल में, अंग्रेजी का जाल।
-कल्पना रामानी
3 comments:
बहुत सुन्दर दोहे । एक से बढ़कर एक
हार्दिक धन्यवाद आ॰ शर्मा जी
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